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माँ

जन्म देने से पालने, बड़ा करने, सिखाने, और मातृत्व का प्यार देने वाली हर उस स्त्री को नमन। मेरी जिंदगी में मेरी माँ और जिंदगी में आई हर वो स्त्रीशक्ति को मेरा नमन जिसने मुझे पुत्र जैसा प्यार दिया, हौंसला दिया, प्यार दिया, उम्मीद दी और जीने के लिए सांसे दी। हम सब के भीतर , चाहे हम कितने ही बड़े हो जाएं , परन्तु एक बचपन जिंदा रहता है परंतु वह भी तब तक जब तक उसकी जिंदगी में माँ का अस्तित्व है क्योंकि उस बचपन को जिंदा रखने में माँ का ही अहम योगदान होता है माँ के चलते हम यह महसूस नही करते कि हम बड़े भी हो रहे हैं वरना बिना माँ के मासूम चेहरों पर से बचपन को गायब होते देखा है मैंने। सोचा कुछ लिखूं , फिर सोचा सिर्फ माँ लिखू परन्तु लिखने लगा तो शब्द के आगे लेखन भी कम पड़ जाए इतना कुछ है माँ के लिए। कहने को एक शब्द है "माँ" परन्तु सारे शब्द इस शब्द के पीछे, और इसी शब्द के पीछे खूबसूरत सा संसार। इस दुनिया मे हर प्रेम , हर रिश्ता जब किसी न किसी वजह से फीका पड़ चुका होगा, मातृत्व का प्रेम तब भी अपना परचम लहराएगा। सारी दुनिया बोलती है, बड़ा हो गया है कुछ कमाया कर। सिर्फ "माँ"है

लॉकडाउन के दौरान जिस जगह फंसा उसी शहर और वहां के लोगों के लिए लिखा प्यार भरा लेख

एक छोटा सा कस्बा और मेरे पसंदीदा शहरों में से एक , टिमरनी। मध्यप्रदेश के हरदा जिले में छोटा सा शहर। मेरे लॉकडाउन के वक़्त का पालनहार। जब मैं पहली बार लगभग 45 दिन पहले यहां आया तो सब कुछ सामान्य शहरों जैसा ही था मगर कहते हैं ना खूबसूरती देखनी हो तो जिसको भी देखना कई बार देखना और मैंने देखी हैं 45 सुबह और शाम इस शहर की। जितनी खूबसूरती इस शहर की है उसी के समानुपातिक यहां के लोगो का दिल, इंसानियत प्रचुर मात्रा में और प्यार अमिट। इस शहर ने दिए हैं कइयों खिलाड़ी, कराटे और कबड्डी के। कराटे में हासिल किया है यहां के बच्चों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक। कमाल की कला छिपी है इस शहर में। इस छोटे से शहर में तिनका सामाजिक संस्था जैसी संस्था जो लड़कियों को सिखाती है आत्मरक्षा के गुर। इस कस्बे में मैं जिससे भी मिला वो मेरा पसंदीदा होता गया, पत्रकार दोस्त बने जो थे कमाल के व्यवहारिक और ठीक उसी तरह की इंसानियत पुलिस बल के कुछ मेरे चुनिंदा व्यक्ति जिन्होंने हर वक़्त मेरा हाल चाल जाना। इस शहर में जिससे जितना बना उसने राहगीरों की हर संभव मदद की और मुझ जैसे मुसाफिरों को दो वक्त के

बाबा साहेब- एक बुलंद/अमिट आवाज

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बाबा साहेब आंबेडकर को दशकों बाद भी आज तक वह सम्मान नहीं मिला जिसके वो हकदार रहे हैं.।  उनके असीमित योगदान के बावजूद उन्हें सिर्फ दलित(असंवैधानिक शब्द) नेता या ज्यादा से ज्यादा संविधान निर्माता तक सीमित कर दिया गया. उन्हें सिर्फ दलित(असंवैधानिक शब्द) आइकन समझा गया जबकि वो पूरे राष्ट्र की पहचान और सम्पूर्ण विश्व के लिए पीड़ित मुक्तिदाता की मशाल समझे जाने चाहिए थे. उन्होंने समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारे और न्याय को आधार बनाते हुए हर वर्ग का ध्यान रख उनके मानवाधिकार, संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किये. आज भी ज्यादातर सिर्फ अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगो की वॉल पर ही अम्बेडकर का फोटो देखने को मिला। चूंकि अब लोगों ने अपने अपने समाज सुधारक बांट लिए है मगर ध्यान रहे अम्बेडकर समानता के लिए लाडे थे ना कि किसी particular समाज के लिए। कुछ लोग जो आंतरिक रूप से बाबा साहेब के समर्थक हैं वो लोग भी डरते हैं अपने आप को अम्बेडकरवादी कहने में। क्योंकि संभवत उनके लिए फिर लोगो का दृष्टिकोण बदल सकता है ऐसा उन्हें डर है।  मगर वो आवाज ही क्या जो सबके लिए ना उठे और वो लेखन ही क्या जिसमे किसीका दर्द ना हो।

क्या खोया, क्या पाया (एक अहम किरदार,पिता)

 एक जिंदगी मिलती है सबको। मैंने छोटी सी उम्र में जिंदगी का अहम किरदार "मेरे पिता". और तमाम उम्र ही मेरा उस शब्द से कोई वास्ता नहीं रहा। तो मानते हो ना? कि कितना कुछ खोया है मैंने। वास्तविक रूप से मुझे पता ही नहीं है कि वह किरदार होता कैसा होगा। जिंदगी के उस किरदार के साथ मेरे रिश्ते का अनुभव बिल्कुल शून्य था। तो मानते हो ना कि कितना कुछ खोया है मैंने। जो जिम्मेदारियां मुझे कभी लेनी ही नहीं थी। मगर उस मां की आंखों में आशा की चमक देखकर, मौज मस्ती को त्यागकर जो मैंने कदम बढ़ाये हैं तो अब माने कि कितना कुछ पाया है मैंने? बचपन मे वो पिता की धमकियां, जो मुझे मिलनी चाहिए थी। उसके बदले में मिला सिर्फ मां का प्यार। और सिर्फ प्यार ढेर सारा प्यार। तो मानते हो कि क्या कुछ खोया मैंने? हां खोया मैंने। वह धमकी में छिपा प्यार, उनके लिए मेरी मां का इंतजार। हां खोया मैंने पिता के उन संघर्षों को देखने का अनुभव। हां खोया मैंने कांधे पर बैठकर बिताए जाने वाला बचपन।। हां खोया मैंने बचपन। की पेरेंट्स मीटिंग के उस किरदार को और मेरे बढ़ते हुए प्यार को। क्या आपने भी खोया? अगर किरदार के रहते ह
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धज्जियां नहीं बिल्कुल नहीं, ये कोई सोची समझी साजिश बिल्कुल नही थी। ये संयम जो अब काबू में ना रह सका ये उसका परिणाम है। ये परिणाम है सरकार की उन विफलताओं का जो ये कहते रहे कि whstapp पर अफवाहों पर रोक लगाएंगे परन्तु ट्रेन चलने को लेकर जो अफवाह चली हुई थी उस पर कभी ध्यान नही दिया।  कोरोना महामारी को रोकना प्राथमिकता होनी चाहिये और है भी परन्तु योजनाबद्ध तरीके से इसे लागू नही किया गया इसकी आज भी कमी खलती है। लोगों की जिंदगी को बचाने के लिए लोगों का ही ध्यान न देना भी सरकार की कमी है।  करीब 3000 लोगों का स्टेशन तक पहुच पाना ही एक विफलता है। दूसरी विफलता इन तक पर्याप्त और खाना पानी जैसी सुविधाओं का ना पहुँचना। क्योंकि अगर पहुचता तो पहुँचाने वाले को ये जरूर पता होता कि ये लोग कुच करेंगे। टीवी की तस्वीरे